Published in The Wire (Hindi) on 13 October 2025
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शुरूआत में प्रशांत किशोर हाशिए पर खड़ी एक मामूली शख़्सियत के रूप में उभरे, कमोबेश उन दावेदारों की तरह जो हाल में अपने बड़े-बड़े सुधारवादी एजेंडों और ढेर सारी पूंजी के साथ बिहार आते हैं, कुछ समय तक उनकी थोड़ी देर तक चर्चा होती है और फिर कहीं गुम हो जाते हैं. पुष्पम चौधरी, या शिवदीप लांडे जैसे आईपीएस अधिकारी (जिनके बारे में कुछ हलकों में अच्छी धारणा है) जब इस्तीफ़ा देकर चुनावी मैदान में उतरते हैं तो थोड़ी सनसनी होती है लेकिन कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं हो पाता.
राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर, जिन्होंने चुनावी सफलता का मंत्र उन राजनीतिक दलों को बेचा जो उसकी क़ीमत चुका सकते थे, अब खुद राजनीति के मैदान में उतर चुके हैं. एक ऐसा व्यक्ति, जिसके पास हर परिस्थिति में जीत दिलाने वाले गुर हैं, उसके लिए तो यह सफर आसान होना चाहिए. लेकिन क्या वाकई ऐसा होगा?
मॉरिस जोन्स ने एक बार कहा था कि भारत में राजनीतिक गतिविधियां तीन स्तरों या तीन भाषाओं में की जाती हैं: आधुनिक पश्चिमी राजनीति की भाषा, पारंपरिक राजनीति की भाषा, और मसीहाई राजनीति (saintly politics) की भाषा. जब भी देश नैतिक और आध्यात्मिक उहापोह में रहता है, तब देश एक ऐसे उद्धारक की तलाश करता है, जो उन्हें निराशा के अंध कूप से बाहर निकाल सके. भारतीय जनचेतना को जगाने के लिए गांधी द्वारा की गई पद यात्राएं अब मसीहागिरी की पहचान बन गई है.
बिहार सर्वव्यापी और दमघोंटू भ्रष्टाचार की चपेट में है. और सरकार के ‘ट्रुथ मैनेजर’ इसे उजागर होने से नहीं बचा सकते.
केजरीवाल ने भी कभी किये थे यही दावे
प्रशांत किशोर ने बिहार के सबसे दूर-दराज़ गांवों की यात्रा की है, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अलख जगाया है, बेख़ौफ़ और बेलौस ढंग से भ्रष्टाचार की प्रतिमूर्तियों की बखिया उघेड़ी है. इसने बहुत लोगों को उत्साहित किया है. एक नए बिहान की आशा जगाई है.
ग़ौरतलब है कि केजरीवाल ने भी इसी तरह एक निर्णायक मोड़ पर राजनीति में प्रवेश किया था -एक ऐसे संकट के क्षण में, जब लोगों के पास राजनीति के अनेकानेक भ्रष्ट संस्करणों के बीच कोई वास्तविक विकल्प नहीं सूझ रहा था और एक तरह से राजनीति में ही लोगों की रुचि खत्म हो गई थी. आम लोगों के अलावा, केजरीवाल ने बड़ी संख्या में आईआईटी इंजीनियरों, मैनेजमेंट स्नातकों और पूर्व सिविल सेवकों को भी आकर्षित किया था.
विविधता से भरी ‘नए लोगों’ की इस जमात ने यह संकेत दिया था कि भारतीय राजनीति में एक नए और क्रांतिकारी विकास की संभावना फिर से जाग सकती है, जिसे हमारी पारंपरिक वंशानुगत राजनीति ने रोक रखा था. लेकिन धीरे-धीरे, जनमानस में सबसे दमदार छवि वाले लोग, जो आम आदमी पार्टी की नैतिक रीढ़ थे, हतोत्साहित और विरक्त होकर पार्टी छोड़ते गए और फिर से वही पुराना प्रश्न कि ‘क्या एक ईमानदार और निर्भीक राजनीति संभव है?’, लोगों को सताने लगा.
केजरीवाल ने अपने अभियान या अभिनय की शुरुआत ही अपने विपक्षियों के द्वारा की गयी वित्तीय गड़बड़ियों और भ्रष्टाचार के रोज़ नए-नए खुलासों से किया. हर दिन एक नया खुलासा और एक नया स्कैंडल. जैसा बर्नार्ड शॉ कहते हैं ‘उन्होंने दूसरों की छवि ध्वस्त कर अपनी छवि बनाई’, दूसरों के मुंह पर कालिख पोत कर अपना चेहरा चमकाया, लेकिन जब उन्हें सत्ता मिली तो यह मुद्दा ही विस्मृत हो गया. वे भी शामिल हो गए उन्हीं दूरगामी योजनाओं में जो अमूमन हर राजनीतिज्ञ करता है.
एक बार राज करने का पट्टा मिल गया तो इसे पीढ़ियों तक के लिए सुनिश्चित करने की. भ्रष्ट लोगों का पर्दाफाश करना, अपने खुद के ईमानदार होने का प्रमाण तो नहीं होता. समय का पहिया घूमा और केजरीवाल को अपने भ्रष्टाचार की कैफियत देनी पड़ी. कोरे कागज़ से केजरीवाल ने भ्रष्टाचार उन्मूलन की राजनीति शुरू की लेकिन कुछ ही समय में मफलरधारी आम आदमी की विलासिताओं के किस्सों, जिन से मुग़ल शासकों को भी शर्म आ जाए तथा उनके सिपहसालारों के हैरतअंगेज़ कारनामों से भरी पड़ी थी!
सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार मिटाने का वादा
बहरहाल, जो लोग सार्वजनिक जीवन से भ्रष्टाचार मिटाने का वादा करते हैं, वे भ्रष्टाचार की प्रकृति, उसके विस्तार, पहुंच और उसकी अनिवार्यता के बारे में अज्ञानता दिखलाते हैं. बाल्ज़ाक को उद्धृत करते हुए कहा जाए तो राजनीति ‘सैन्य अभियान’ की तरह है…मुख्यतः एक आर्थिक उपक्रम; जहां आपको लड़ने के लिए स्वर्ण मुद्राओं की ज़रूरत होती है, और स्वर्ण पाने के लिए आपको लड़ाई लड़नी पड़ती है.’ यानि राजनीति में पैठ के लिए धन चाहिए और फिर वही राजनीति धनोपार्जन का साधन बनेगा.
प्रसिद्ध राजनैतिक-दार्शनिक लियो स्ट्रॉस के अनुसार राजनीतिक व्यवहार वह ‘आवश्यक झूठ’ (necessary lie) है जो समाज की स्थिरता और व्यवस्था बनाए रखने के लिए कहा जाता है. राजनीतिक वर्ग इस हद तक भ्रष्टाचार में डूबा हुआ है कि अगर वे वास्तव में इस लड़ाई को गंभीरता से लड़ें, तो राजनीति का कोई नामलेवा भी नहीं बचेगा. इसलिए ये छद्म लड़ाइयां रची जाती हैं-पूरे शोर-शराबे और आक्रोश के साथ.
बहुत कुछ काबुकी थिएटर की तरह: स्टाइलाइज़्ड, लगभग वैसा ही जैसा कि उन जानवरों के बीच होने वाली लड़ाइयां, जिनके सींग इस तरह से बने होते हैं कि वे एक-दूसरे को चोट ही नहीं पहुंचा सकते.
भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ाई यक़ीनन नूरा कुश्ती है, लेकिन इनकी भी अपनी उपादेयता है. इस तरह, भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अपनी एक विशिष्ट मुद्रा बनाना या एक निश्चित रवैया रखना इन राजनीतिक पार्टियों या व्यक्तित्वों की विवशता हो जाती है. एक ऐसा कालातीत- शास्त्रसम्मत तरीका जिसमें शासक जानबूझकर सच्चाई को छिपाते हैं या तोड़-मरोड़ कर पेश करते हैं. हालांकि यह तरीका नैतिक रूप से जितना संदिग्ध हो, आम जनता को तात्कालिक आशा और राजनीतिक समुदाय को स्थिरता प्रदान करता है.
लेकिन असहज करने वाली एक वास्तविकता यह भी है कि अब यह व्यवस्था अपनी सीमाओं से ही टकरा रही है, अनिवार्य झूठ की संभावनाएं समाप्त हो चुकी हैं और हम राजनीतिक अस्थिरता या भूचाल की अवस्था की ओर बढ़ रहे हैं. इसलिए समय-समय पर एक क़िस्सागो, एक सपनों का सौदागर, एक ‘बांसुरीवाला’(Pied Piper) प्रकट हो जाता है जो जनता को, जो स्वयं ही इस भ्रष्टाचार में संलिप्त भी हैं और उसके भुक्तभोगी भी, सम्मोहित करता है और पूरी भीड़ उसके पीछे चल पड़ती है.
वह यह झूठ बेचने में क़ामयाब हो जाता है कि भ्रष्टाचार रूपी इस कैंसर का इलाज वाकई संभव है और भोली-भाली जनता को इलाज के स्थान पर ‘सांप का तेल’ जैसे पाखंडी नुस्ख़ों की लंबी फ़ेहरिस्त पकड़ाता फिरता है.
कोई स्पष्ट रणनीति नहीं
प्रशांत किशोर ने अब तक अपनी ऐसी कोई स्पष्ट रणनीति नहीं बतलाई है जिससे कि पता चल सके कि वे ‘भ्रष्टाचार, अपराध और जातिवाद’ के शिकंजे से राज्य को कैसे बाहर निकालेंगे. दिल्ली में केजरीवाल के ख़ेमे में तो अकूत नैतिक पूंजी थी पर बिहार की राजनीति पर नज़र रखने वाले जन सुराज पार्टी में भी अवसर की ताक में, विभिन्न राजनीतिक पार्टियों का जाएजा लेकर आए हुए यायावरों, रंगे सियारों का जमावड़ा है, जिनकी ईमानदारी और सत्यनिष्ठा के बारे में बहुतों को गंभीर संदेह दिख रहे हैं.
इसलिए प्रशांत किशोर को यह बताना होगा कि अगर वे बिहार के मुख्यमंत्री बनते हैं तो सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए जिन सेनानायकों के दम पर उन्होंने यह राजनैतिक धर्मयुद्ध ठाना है, उनके इस अभियान में खर्च हुए धन की क्षतिपूर्ति कैसे होगी. इसे नज़रअंदाज़ करना किसी भी सरकार के लिए घातक हो सकता है.
बहरहाल, जैसे ‘अनिवार्य झूठ’ राजनीति की विवशता है, वैसे ही जनता को इसे ग्रहण करने की लाचारी है. क्या पता समचमुच कोई योग्य पात्र निकल आवे.
(लेखक बिहार कैडर के पूर्व आईपीएस अधिकारी हैं, जो बिहार की राजनीति पर लिखते हैं. इस अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद स्वयं लेखक ने किया है.)