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Sunday, November 2, 2025

बिहार में चुनाव : राजनीति के पंचकर्म

बिहार में चुनावी बयार ने असंख्य लोगों के मन में जनसेवा का जज़्बा जगा दिया है। टिकट पाने का जुनून हज़ारों-हज़ार युवक-युवतियों, महिलाओं, बुज़ुर्गों, उदयमान या अस्ताचलगामी नेताओं को पटना खींच लाया है - कुछ इस कदर कि शहर का जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया है। अंदर टिकट न मिल पाने की खीझ अब सड़कों पर उतर रही है। एक नेता से उनके टिकट के लिए ग़ैर वाजिब दाम की फरमाइश की गयी। नेता ने हताशा में अपना कुरता फाड़ लिया और उन्होंने अपने आप को इस आवेग से सड़क पर पटक दिया कि लोगों का कहना है कि एकाध किलोमीटर तक सड़क दरक गयी। फटे कुर्तें में भूलुंठित नेता उस दिन प्राइम टाइम की सुर्ख़ियों में रहे। पर यह कोई अपवाद नहीं था। ऐसे आरोप हर दल पर, हर असंतुष्ट प्रत्याशी के मुँह से सुनाई पड़ रहे हैं। शांत रहें! प्रजातंत्र का लाइव थिएटर जारी है-आप चाहें तो मौज लेकर देखें या चुपचाप निकल जाएँ।

चुनाव का मौसम प्यार का मौसम भी है, तकरार का भी। पुराने मित्र अजनबी हो जाते हैं, कट्टर शत्रु गले मिलते हैं। “अनंत मित्रता” के वादे तीन दिन भी नहीं टिकते। गठबंधन बनते और टूटते हैं, जैसे मनोविकृतियाँ उभरती और दब जाती हैं। राजनीति अब विचार नहीं, एक फुटबॉल लीग बन कर रह गई है। राजनीतिक पार्टियों के नेता पेशेवर फुटबॉल खिलाड़ियों की तरह पाला बदल रहे हैं। राजनीतिक दलों के नेता अब पुट्टी की तरह लचीले हो गए हैं, जिन्हें किसी भी आकार में ढाला जा सकता है। वे कोरी तख्तियाँ हैं - प्रोग्राम करने योग्य मनुष्य, जो अपने अतीत को डिलीट कर भविष्य के लिए अपडेट होते रहते हैं। 

संपूर्ण कमोडिफिकेशन के युग में राजनीति देश का सबसे बड़ा मॉल बन चुका है। इस मॉल में सब कुछ बिकाऊ हैं: जिस्म से लेकर जज़्बात तक, अस्मत से अमिता तक, संत से लेकर सत्ता की बागडोर तक। गहमा-गहमी का माहौल  है, कुछ बिक गए हैं, कुछ की बोलियाँ लग रही हैं और कुछ लंबे अरसे से बिकने की प्रतीक्षा में खड़े-खड़े बास मारने लगे हैं। इस मॉल में अभी बुद्धिजीवी, पत्रकार, यूट्यूबिया इन्फ्लुएंसर की सबसे ज़्यादा बिक्री हो रही है। जब कोख किराए पर मिल सकती है, मस्तिष्क धनोपार्जन का साधन क्यों नहीं बन सकता? पारदर्शिता और  सामान्यीकरण का दावा बुलंद करते हुए एक नेता तो खुले आम एक कैमरा-धारी को पैसे देते हुए दिखे। उस बंदे ने तुरंत अपना सुर बदला और तत्काल तीखे सवालों के बदले राग दरबारी में स्तुति गान शुरू कर दिया।

मीडिया को समाज ने तीनों एस्टेट पर नज़र रखने का ज़िम्मा दिया था। सत्ता को निरंतर जली-कटी की कड़वी घुट्टी पिलाकर स्वस्थ रखने का ज़िम्मा दिया था - पता ही नहीं चला वह सत्ता के साथ कब हमबिस्तर हो गई। इसने सत्ता को चाटुकारिता की चाशनी पिलाकर इतना रुग्ण, क्षीण और ऐसा अक्षम बना दिया है कि वह भले-बुरे का अंतर भूल गई है। बुद्धिजीवियों एवं पत्रकारों को सत्ता का  आऊटराइडर  या पालकी उठाने का काम बड़ा रास आ रहा  है।

अपने बिहार में ही देखिए - वो कहीं से आए, उन्होंने सत्ता की शान में कुछ लिखा, ‘सेर सिबिराज है ' की तर्ज़ पर; कुछ अख़बारों में बढ़ते बिहार के बारे में ज्ञान पसारा; बिहार की सांस्कृतिक विरासत को कैसे संजोया जाये - उस पर  सरकार को कान में कुछ गोपनीय जानकारियाँ दीं; और राज्यसभा का जैकपॉट जीतकर चलते बने। फिर उन्होंने पाला बदला, नये स्वामी का गुणगान किया; पर स्वामी-भक्ति से मन भर गया तो स्वतंत्र लेखन करने लगे।

महाभारत में एक प्रसंग है – अर्जुन, बृहन्नला का रूप धारण करने के लिए अभिशप्त थे इसलिए विराट के दरबार में जाने से पहले उन्होंने अपने सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र एक पोटली में बाँधकर पीपल के पेड़ की शाखा से लटका दिया।  नर्तक को भला इन अस्त्रों का क्या काम? बाद में अज्ञात वास की अवधि समाप्त होने पर उन्होंने क्षत्रिय राजकुमार योद्धा के रूप में उन्हें ग्रहण कर कौरवी सेना को खदेड़ा। 

जीवन में आदर्श का होना बहुत ज़रुरी है, परन्तु गंभीर और भिज्ञ नेता उन्हें पोटली में बाँध कर रखते हैं, बिल्कुल अर्जुन के अस्त्र की तरह। ज़रुरत हो तो इस्तमाल कीजिये वरना सुविधा के क्लॉक रूम में रख कर प्रेम से विचरण कीजिये। आदर्श, बहुमूल्य आभूषणों की तरह हैं। महत्त्वपूर्ण समारोहों, उत्सवों में पूरी चमक-दमक के साथ पहनने के लिए, रोज़मर्रे के इस्तेमाल के लिए नहीं। कर्ण का कवच-कुण्डल उनका जन्मजात आभूषण था पर, दान वीरता का व्रत चुकाने के लिए जब उसने इसका परित्याग किया तो उसका शरीर लहू-लुहान हो गया। लिहाजा सफल लोग   अपने आदर्शों को लाइटली धारण करते हैं। 

 सत्ता और  बाहुबलियों   दशकों से से चली आ रही अंतरंगता का परिणाम सामने है। इस  की अवैध औलाद 'मिडनाइट  चिल्ड्रन' के आगे सत्ता बिलकुल विवश हो जाती है। बिहार में  एक ऐसा भी  दौर आया था  कि  इस अवैध सत्ता की पालकी उठाने वालों  पुलिस  भी खुल्लम  खुल्ला शामिल थी ।  क़ानून अपनी बेचारगी पर ज़ार-ज़ार रोता है। क्या करना है उसे इस व्यवस्था में!  अब तो इस अवैध संबंध की तीसरी पीढ़ी चुनाव में उतर रही है जिसमें अपराध और राजनीति- दोनों के गुण-सूत्र शामिल हैं। 

अपराध एवं राजनीति की अनियंत्रित अंतरंगता का सीधा परिणाम एड्स जैसी घातक बीमारी है। जो समाज में पसरी हुई है जहां पूरा का पूरा समाज इम्यूनोडेफिशिएन्ट हो गया है। उसकी प्रतिरोधक क्षमता का ह्रास इस कदर हो गया है कि हमारी आँख के सामने लगभग हर पार्टी कुछ ऐसे प्रत्याशियों को टिकट दे रही है जो पहले से ही समाज के लिए ख़तरा थे-उनको विधानसभा में भेजकर उन्हें और सशक्त ही किया जा रहा है। कहीं से कोई आवाज़ नहीं उठ रही। प्रजातंत्र एलिस इन वंडरलैंड की चेशायर बिल्ली की तरह हो गई  है। बिल्ली तो कब की गायब हो गयी, लेकिन उसकी मुस्कान अभी भी उसके होने का अहसास कराती है। लेकिन अभी उन्माद की स्थिति है, जब चेतना लौटेगी तो कस्तूरी का मृग ज्यों फिर फिर सूंघे घास की शैली में समाज में प्रदूषण फैलाने वाले स्त्रोत को ढूंढते फिरेंगे। 

नियमित चुनाव वस्तुतः प्रजातंत्र रुपी बिल्ली की मुस्कान है। भारतीय मतदाता समय-समय पर प्रजातंत्र में अपनी आस्था जताने के लिए झुंड बाँधकर या निपट अकेले अपना मत डालने निकल पड़ता है। स्वाभाविक रूप से वह किसी-न-किसी दल या गठबंधन के पक्ष में वोट डाल देता है। कई ‘महान चिंतक’ या ‘कन्फ्यूज्ड’ बुद्धिजीवी नागरिक अपना वोट किसी को नहीं देते-शायद इसलिए कि उनके आदर्शों पर कोई खरा नहीं उतरता या शायद इसलिए कि वे खुद नहीं जानते कि वे चाहते क्या हैं। और कुछ बुज़दिल बूथ तक जाते ही नहीं- ‘मुझ अकेले से क्या होगा, कोई भीड़ तो मेरे साथ है नहीं ’- ऐसे सवाल से घिरकर।

हालाकि बिहार के मतदाता के पास विकल्पों की कोई कमी नहीं- अति वामपंथियों से लेकर घोर दक्षिणपंथियों तक, निपट जाहिलों से लेकर उद्भट विद्वानों तक, नर-नारी-किन्नर-एलजीबीटी तक, साधू से शैतान तक - सब चुनावी मैदान में उतरते हैं। पर अंततः मतदाता के पास विकल्प दो ही रह जाते हैं-दो बड़े गठबंधन, जिनमें से एक गया तो दूसरा आया, दूसरा जाएगा तो पहला आयेगा। जैसे चुनाव होते हैं उनमे वित्तीय दम-ख़म वाले एवं राष्ट्र या कम से कम राज्यव्यापी संगठन वाले पार्टी या गठबंधन ही टिक सकते हैं। होता वही है जो होना चाहिए । चुनाव के परिणामों के साथ ही चुनावी विश्लेषकों की बाढ़ आयेगी- आँकड़ों, ग्राफ़ों, पाई-चार्टों की भाषा में वे बताएँगे कि मतदाता कितना परिपक्व है। वही मतदाता जिसने कल किसी को चुना था, आज उसे हटाया - उसकी ‘परिपक्वता’ पर क़सीदे  पढ़े जाएंगे। मन भर जाने के बाद वह फिर उसी को वापस लाएगा और वही क़सीदे दोबारा पढ़े जाएंगे ।

लोकतंत्र की यह लीला कभी-कभी उस प्रसिद्ध जर्मन घोड़े ‘क्लैवर हांस’ की याद दिलाती है। विल्हेम वॉन ओस्टेन नामक एक गणित-शिक्षक ने दावा किया था कि उसका घोड़ा गणित के सवालों के जवाब दे सकता है। हांस सिर हिलाकर सही उत्तर देता और दुनिया हैरान रह जाती। बाद में वैज्ञानिकों ने पाया कि हांस असल में अपने प्रशिक्षक के शारीरिक संकेतों को पढ़ रहा था- वह किसी गणितीय प्रतिभा का नहीं, बल्कि प्रेक्षक-प्रत्याशा प्रभाव  (observer-expectancy effect) का नमूना था। भारतीय मतदाता भी वैसा ही है -वह निर्णय नहीं करता, अपने चुनावी प्रत्याशी या दलों के संकेतों पर हरकत में आता है। भड़काऊ नारे, प्रतीक, जातीय गणित, मुफ्त वादे, सब उसके अवचेतन के ट्रिगर पॉइंट्स हैं। वह सोचता है कि उसने चुना है,जबकि उसे तो केवल प्रोग्राम किया गया है। मतदाता का निर्णय -क्लैवर हांस या सड़क किनारे बैठे तोते की भविष्यवाणी से अधिक तर्कसंगत नहीं हैं। 

मतदाता के चयन (चॉइस) का अनादर करना या खिल्ली उड़ाना ईश निंदा के बराबर पाप होगा। उस पर किसी सुविचारित या क्रांतिकारी सोच आरोपित करना वस्तुतः प्रजातंत्र का आत्मालाप है। यदि चुनाव को उसकी असली प्रकृति में देखें तो हर चुनाव -एक मास्क्ड बॉल है। स्लॉवेनियन दार्शनिक, आलोचक स्लावोय झिझेक के शब्दों में, स्वतंत्र चुनाव वास्तव में एक छलावा है, जहाँ सत्तासीन वर्ग या सत्ता के दावेदार, याचक का मुखौटा पहनकर  अतिशय विनम्रता के साथ मतदाता से याचना करता है कि वे उसे शासन करने का अवसर दें। चुनाव के दिन मतदाता को मूर्खों वाली टोपी पहनाकर यह विश्वास दिलाया जाता है कि उसके सर पर ताज है। अस्तु टोपी पहनाना राजनीति का धर्म  है। गाँधी जी स्वयं किसी राजनीतिक दल में नहीं रहे, लेकिन सबको राजनीति में सक्रिय कर दिया। गांधी जी ने खुद कभी टोपी नहीं पहनी, पर पूरे देश को गाँधी टोपी पहना दी। वस्तुतः उन्होंने अहिंसक फौज के ख़तरों से बेपरवाह कर ब्रिटिश सरकर को टोपी पहनकर रुखसत कर दिया। देखा जाय तो राजनीति अपने आप में कलुषित नहीं, राजनीति करने वालों की मंशा ने इसे इस मोड़ पर पंहुचाया है।